जगतगुरु सतगुरु रविदास महाराज जी का 151 वर्ष की आयु में ब्रह्मलीन होना ।

सद्‌गुरु रविदास महाराज जी भी 151 वर्ष की लम्बी आयु संसार में बिताकर स्थूल शरीर त्याग कर ब्रह्मलीन हो गए  ।


सतगुरु रविदास महाराज जी
सतगुरु रविदास महाराज जी


पंद्रह सै चउरासी, भई चितौर मंह भीर।
जर जर देह कंचन भई, रवि रवि मिल्यौ सरीर ।।

 यह संसार नश्वर है। इस संसार की कोई भी वस्तु, जीव-जन्तु, प्राणी, कंद-मूल, पेड़-पौधे आदि सब कुछ जो भी हमें दिखाई देता है, एक न एक दिन नष्ट होने वाला है। यहाँ तक कि यदि ईश्वर ने भी कभी किसी रूप में धरती पर अवतार धारण किया है तो उसे भी दुनिया की इस रीति को निभाना ही पड़ा है। वह भी शरीरी रूप से नश्वर हुआ है :-

 

राणा रऊ न को रहै रंगु न तुंगु फकीरु।
बारी आपो-आपनी कोई न बन्धै धीरु ।।
(रामकली 936)

 संसार में जो भी जीव आया है, उसे एक दिन यह संसार छोड़कर जाना ही होगा, चाहे वह राजा हो या रंक, अमीर हो या गरीब, स्त्री हो या पुरुष, आस्तिक हो या नास्तिक। इस पाँच तत्वों के बने शरीर को त्यागना ही पड़ता है :-


जग रचना सभ झूठ है, जानि लेहु रे मीत।
कहि नानक थिरु न रहै ज्यों बालू की भीत।।

 हमारा शरीर पाँच तत्वों का ऐसा पुतला है, जो रेत के बने घरौंदे की तरह है। यह घरौंदा स्थिर नहीं होता और ज़रा सी ठेस लगने पर ही यह रेत का घर पता नहीं कब ढेरी हो जाए। जीवन तो पानी के बुदबुदे की भांति है जो बनता और बिगड़ता रहता है।

 

जैसे जल ते बुदबदा उपजै बिनसै नीत
जग रचना तैसे रची कहु नानक सुन मीत
(पृष्ठ संख्या 1427)

 यह बात अलग है कि कोई अधिक समय तक जीवित रहता है तो कोई थोड़े ही समय के बाद इस संसार को छोड़ कर चला जाता है परंतु बारी तो सभी की निश्चित है, मौत का स्वाद सभी को चखना ही पड़ेगा। काल से कोई भी बच नहीं सकता। यदि कोई सौ वर्ष का हो जाए तो भी उसे एक दिन मृत्यु से ग्रसित होना ही है :-

 

बुड्डा होया शेख फरीद कंबन लगी देह।
जे सो बरियां जीवना ते इह तन होसी खेह ।।

महापुरुषों एवं सन्त-वाणियों की दृष्टि से मृत्यु कोई चिन्ता का विषय नहीं है और न ही उन्होंने इससे डरने के लिए ही कहा है बल्कि उन्होंने तो हमें यह कहा है कि मृत्यु को हमेशा याद रखना चाहिए। संतों ने मृत्यु को 'इन्तकाल' करना कहा है अर्थात 'बदलना' जिस प्रकार हम अपने शरीर से पुराना वस्त्र उतार कर नया धारण कर लेते हैं, उसी प्रकार यह जीवात्मा अपने एक शरीर को छोड़ कर दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाती है या फिर सङ्कर्मों वाला जीव जन्म-मरण से छुटकारा पाकर उस मालिक के साथ अभेद हो जाता है क्योंकि उसी से बिछुड़कर वह अलग-अलग जोनियों में जन्म लेता है। वैसे तो महापुरुष जन्म-मरण से रहित होते है। वे जिन्दा रहकर भी दिन में सौ-सौ बार मरते हैं और मर कर भी अपनी साधना एवं परमार्थ के कारण दुनिया में अमर हो जाते हैं। संत तो केवल मृत्युलोक में दुनिया का उद्धार करने हेतु आते हैं।

ईश्वर के आदेशानुसार सेवा एवं कर्तव्य को निभाने के लिए मानव जीवन में अवतार धारण करते हैं और मृत्युलोक में आकर अपनी सभी जिम्मेदारियां एवं कर्तव्यों को निभाकर और समाज के लिए अपने पद्-चिह्न छोड़कर उसी परमपिता की गोद में समा जाते हैं। अतः उनके मरने पर शोक नहीं मनाया जाता और न ही वे दुनिया में आकर दुःखी होते हैं। गुरवाणी में भी बताया गया है :-

 

जनमु मरणु दुहहू महि नाहीं, जन परउपकारी आए।
जीअ दानु दे भगती लाइनि हरि सिउ लैनि मिलाइ ।।
(पृष्ठ सं. 741)

 दुनिया में फैली अराजकता, अज्ञानता, अशांति, अन्याय, पाप और संकटों के अंधकार को मिटाने के लिए ईश्वर समय-समय पर इन सन्त महापुरुषों को मृत्युलोक में भेजता है और समय आने पर लोक परम्परा को निभाते हुए वे संत मानव शरीर को छोड़कर ब्रह्मलीन हो जाते हैं।

इसी प्रकार सद्‌गुरु रविदास महाराज जी भी 151 वर्ष की लम्बी आयु संसार में बिताकर स्थूल शरीर त्याग कर ब्रह्मलीन हो गए :-

पंद्रह सै चउरासी, भई चितौर मंह भीर।
जर जर देह कंचन भई, रवि रवि मिल्यौ सरीर ।।

कुछ विद्वानों के अनुसार इस कलियुग में इतनी लम्बी उम्र संभव ही नहीं पर प्रभु-भक्त के लिए इतनी आयु का होना कोई अतिशयोक्ति नहीं। इन संत महापुरुषों ने श्वासों पर नियन्त्रण किया होता है, योग-साधनों से वे दिन में कई-कई बार मरते हैं। अभ्यास और प्राणायाम से उनका शरीर निरोग रहता है। सद्गुरु रविदास जी का निर्वाण स्थान चितौड़गढ़ है। कुछ विद्वानों के अनुसार आप जी ने अपना सांसारिक-चोला बनारस में त्यागा था।

 

महाराज जी विशाल सूर्य की किरण थे, सतिनाम समुद्र के मोती थे जो अपना कर्त्तव्य निभाकर, दुनिया को प्रेरणा देकर उसी समुद्र में मिल गए :-


सूरज किरणि मिले जल का जलु हुआ राम।
जोति जोत रली संपूरन किया राम ।।
(पृष्ठ संख्या 846)

सद्गुरु रविदास महाराज जी के जीवन संबंधी सबसे प्राचीन और हस्तलिखित रचना "भगत रत्नावली" रैदास की परिचई है जो आप जी के ज्योति ज्योत समाने के लगभग 48 वर्ष बाद लिखी गई और 1588 में पूर्ण हुई। अनंतदास वैष्णव की इस रचना के अनुसार सद्गुरु जी ने चितौड़ में 1527 ई. में अपना शरीर त्यागा।

तीन सौ वर्ष पुरानी हस्तलिखित "कथा गुसांई रविदास जी के समावने की" में भी आप जी के देह त्यागने का जिक्र है। इसके रचनाकार सोढी मेहरबान को माना जाता है और संपादिका डा० ऊषा खन्ना है। इन इतिहासकारों का विचार है कि सद्‌गुरु जी निःसंदेह ही देह सहित ही सद्गुरु परलोक में चले गए थे। यदि उनकी देह का संस्कार किया होता तो आप जी के ज्योति-ज्योत समाने वाले स्थान पर अवश्य कोई न कोई यादगार बनी होती ।

परन्तु ऐसा होना कोई ज़रूरी नहीं क्योंकि सद्गुरु रविदास महाराज जी भौतिक यादगारों में विश्वास नहीं रखते थे। कहा जाता है कि सद्गुरु रविदास महाराज जी ने अपने महानिर्वाण के दस दिन पहले अपने श्रद्धालुओं को एकत्रित किया और कहने लगे प्रियजनों! आज से दस दिन बाद मैं अपना यह स्थूल शरीर छोड़ जाऊँगा, लेकिन आप दुःखी मत होना, चिन्ता मत करना। मेरा सूक्ष्म रूप सदैव आप के साथ रहेगा। जिस भी रूप में आप मुझे याद करेंगे, उसी रूप में मैं आपके समक्ष रहूँगा।

महाराज जी के प्रवचन सुनकर भक्तजनों की आँखें नम हो गई। गुरु के बिछुड़ने की बात सुनकर शिष्य का हृदय व्याकुल हो जाता है। आँसुओं की झड़ी लग जाती हैं। एक श्रद्धालु ने अपने व्याकुल मन को ढाढस देते हुए महाराज जी से विनम्र निवेदन किया- 'महाराज! हमें यह तो बता दो कि आप इस मृत्युलोक को छोड़कर कहाँ जा रहे हो? क्या उस स्थान का कोई नाम है? वह स्थान कैसा होगा? श्रद्धालुओं की तीव्र उत्सुकता को जानते हुए महाराज जी ने कहा था

'जिस शहर में मैं जा रहा हूँ उस शहर का नाम "बेगमपुरा" है। इस शहर में किसी प्रकार का कोई दुख नहीं होगा, किसी को किसी का डर नहीं सताएगा सभी स्वतन्त्र होंगे, सभी समान होंगे, ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं होगा। आप जी ने कहा कि केवल प्रभु का सच्चा नाम ही अमर है, उसी का सिमरन करके ही हम बेगमपुरे के वासी बन सकते हैं। वहाँ पर किसी भी प्रकार का कोई दुःख नहीं है। वहाँ न कोई गरीब है न अमीर, न छोटा है न बड़ा।

बेगमपुरा सहर को नाउ। दूखु अंदोहु नही तिहि ठाउ।
नां तसवीस खिराजु न मालु ।।
खउफु न खता न तरसु जवालु । ।१ ।।
अब मोहि खूब वतन गह पाई।
ऊहां खैरि सदा मेरे भाई ।।१।। रहाउ ।।
काइमु दाइमु सदा पातिसाही।
दोम न सेम, एक सो आही।
आबादानु सदा मसहूर ।
ऊहां गनी बसहि मामूर।।२।।
तिउ तिउ सैल करहि, जिउ भावै।
महरम महल न को अटकावै।
कहि रविदास खलास चमारा।
जो हम सहरी सु मीतु हमारा ।।३।।

(आदि ग्रन्थ पन्ना 345)

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