शिरोमणि सतगुरु गुरु रविदास महाराज जी जीवन दर्शन

शिरोमणि जगतगुरु सतगुरु रविदास जी महाराज: सच्चाई, समानता और मानवता के प्रतीक


Shriomani Guru Ravidas Ji Maharaj

शिरोमणि सतगुरु रविदास जी महाराज

प्रस्तावना 

रुहनीयत के मालिक, उस निराकार परम पिता की भक्ति करने वाले, अज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जा कर भूलो को राह दिखाने वाले। अपनी अनुकंपा से पत्थरों को तराने वाले अपनी दया से इंसान तो क्या जानवरों को भी प्यार करने वाले गरीबों के मसीहाशांति के अग्र दूतदया के सागर।  मेरे कुल गुरुपरम पूजनीय परम परम वंदनीय निरंतर स्मरणीय, ह्रदय सम्राट   
"शिरोमणि सदगुरु रविदास जी महाराज"

सदगुरु रविदास जी महाराज, जिन्हें शिरोमणि सदगुरु के रूप में सम्मानित किया जाता है, 13वीं शताब्दी के एक महान संत, कवि, और समाज सुधारक थे। उनका जीवन और उनकी शिक्षाएं आज भी हमें सच्चाई, समानता, और मानवता की राह पर चलने के लिए प्रेरित करती हैं। उनके उपदेशों ने समाज में एक नई जागरूकता और बदलाव का सूत्रपात किया, जिसने हजारों वर्षों से चली आ रही सामाजिक असमानताओं और भेदभाव के खिलाफ एक मजबूत आवाज उठाई।

सद्गुरु रविदास महाराज जी ने एक ऐसे विश्व की कल्पना कीजहां पर सभी को पेट भर खाना मिल सकेपहनने के लिए कपड़ा और रहने के लिए घर मिल सके। जहां सभी बराबर हों :-

ऐसा चाहूँ राज मैं जहां मिलै सबन को अन्न । छोट बड़ो सभ सम बसें, रविदास रहै प्रसन्न । ।


सदगुरु रविदास जी महाराज का जन्म माघ पूर्णिमा के दिन, वर्ष 1377 ईस्वी (1433 विक्रमी) में उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के सीर गोबर्धनपुर गांव में हुआ था। 

उनके पिता का नाम संतोख दास और माता का नाम कर्मा देवी (कलसा) था। उनका जन्म एक ऐसे समय में हुआ था । 

जब समाज में जातिवाद और भेदभाव का बोलबाला था। उनका परिवार चर्मकार जाति से था, जिसे उस समय समाज के निम्न वर्ग में माना जाता था।

सदगुरु रविदास जी महाराज ने बचपन से ही गरीबी, असमानता और अन्याय को देखा। हालांकि, इन सबके बावजूद, उन्होंने समाज में व्याप्त असमानताओं के खिलाफ संघर्ष करने का निश्चय किया । 

सदगुरु जी ने बचपन से ही धार्मिक और आध्यात्मिक गतिविधियों में रुचि रखते थे और उनका अधिकतर समय धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन में व्यतीत होता था । 

सदगुरु रविदास जी संत परंपरा और भक्ति मार्ग के जन्मदाता थे । इसलिए ही सद्गुरु रविदास महाराज जी को शिरोमणि गुरु रविदास महाराज कहा गया है । सदगुरु रविदास जी महाराज ने सहज मार्ग द्वारा प्रभु भक्ति की प्रेरणा दी । बाहरी कर्मकांडों और सांसारिक पूजा सामग्री का खंडन किया । उन्होंने अपनी पावन पवित्र वाणी में लिखा है: -

सतिजुगि सतु तेता जगी दुआपरि पूजाचार । तीनौ जुग तीनौ दिड़े कलि केवल नाम अधार ॥१ ॥

सतगुरु रविदास जी महाराज मानवता को पावन उपदेश देते हैं कि प्रभु के सिर्फ नाम सिमरन से ही जीव का जन्म - मरण के चक्र से छुटकारा हो सकता है  जो बहुत ही सरल और सहज मार्ग है ।  


संक्षिप्त जीवन परिचय सद्गुरु रविदास महाराज जी

 

नाम                        

सदगुरु रविदास महाराज जी

माता का नाम

कलसाँ

पिता का नाम

संतोख दास

जन्म स्थान

सीर गोवर्धनपुरनज़दीक मंडुआडीह वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

 जन्म तिथि

चौदह सौ तैंतीस (विक्रमी) माघ सुदी पूर्णिमा 1377 ई.

 दिन

रविवार

ब्रहमलीन वर्ष

1527 ई.

ब्रह्मलीन स्थल

चितौड़गढ़

सदगुरु रविदास जी के वंश में से ही उनके पड़पौत्र संत कर्मदास जी, जो कि गुरु गोबिंद सिंह जी के पांच प्यारों में से थे और श्री धर्मदास जी के समकालीन थे, ने प्रस्तुत दोहा सद्गुरु रविदास महाराज जी के जन्म परिणाम स्वरूप प्रस्तुत किया है :-

 
चौदह सौ तैंतीस की माघ सुदी पंदरास ।
दुखियों के कल्यान हित, प्रगटे श्री रविदास । ।

 

आध्यात्मिक यात्रा और धर्म से जुड़ाव

सद्गुरु रविदास महाराज जी महान युगपुरुष हुए हैं। आप जी ने सुदीर्घ और स्वस्थ जीवन बिताया है। 151 वर्ष की इस लम्बी आयु में आप जी ने भारतीय समाज को नई दिशा प्रदान की। 

अपने मुखारबिंद से ऐसे वचनों की वर्षा की जिससे समाज में फैले ऊँच-नीच, जाति भेद-भाव और धर्म के प्रति अनेक प्रकार की शंकाए समाप्त हो गईं। सभी के हृदय में ज्ञान का दीया जलने लगा और अज्ञानता का अन्धकार मिट गया। 

आप जी ने बहुत सी वाणी का उच्चारण किया जिसमें से चालीस शबद और एक श्लोक श्री गुरु ग्रन्थ साहिब की माला का मोती बन गए । आज भी उन मोतियों को चुग कर अनेक काग हँस बन रहे हैं। 

लिखित वाणी के साथ-साथ सद्‌गुरु रविदास महाराज जी ने स्थान-स्थान पर जाकर लोगों को धर्म, एकता और भाईचारे का संदेश दिया।

इस तरह सद्‌गुरु रविदास जी ने भी अनेक उदासियां की और जहाँ भी आप जी के चरण पड़े वहाँ पर एक यादगार बन गई। डॉ. पदम् गुरचरण सिंह जी ने आप जी की यात्राओं के बारे में कहा है कि मथुरा, वृंदावन, प्रयाग, हरिद्वार और कुरुक्षेत्र आदि की यात्रा सद्गुरु रविदास जी ने की थी ।

संतघाट गुरुद्वारा :- यह वह प्रसिद्ध स्थान है जहाँ सद्‌गुरु रविदास जी की पंजाब यात्रा के दौरान श्री गुरु नानक देव जी से भेंट हुई थी। आप जी ने सत्संग किया, प्रवचन किए और श्री गुरु नानक देव जी के साथ धार्मिक जागरण संबंधी और सामाजिक कुरीतियों का खण्डन करने के लिए एक गोष्ठी भी की थी। अनेक संत महापुरुष यहाँ मिल कर बैठे थे।

पण्डित बख्शी दास ने 'रविदास रामायण' में उन धार्मिक स्थानों का वर्णन किया है, जहाँ पर गुरु रविदास जी गए थे। वे स्थान हैं:- प्रयाग, त्रिवेणी, गोदावरी, हरिद्वार, सुल्तानपुर, पंघाट। पण्डित बख्शी राम के अनुसार महापंघाट वह स्थान है जहाँ मीरा जी को रविदास महाराज पुनः मिले थे और आप ने समूचे देश के भ्रमण की इच्छा प्रकट की थी :-

विवाह और पारिवारिक जीवन

सद्गुरु रविदास महाराज जी की लगन जब प्रभु-नाम के साथ इतनी बढ़ गई कि आप दुनियादारी से बेखबर रहने लगे। तब माता-पिता ने सोचा कि अब इसका विवाह कर दिया जाए। जब इस पर गृहस्थी का बोझ पड़ेगा तो यह बंधन में बंध कर काम धंधे में लग जाएगा।

श्री राम चरण कुरील लिखते हैं कि: - 

"श्री गुरु रविदास जी ने गरीबों की सेवा में घर को लुटा दिया। किसी भी गरीब को नंगे पांव चलते नहीं देख सकते थे। उसे जूते पहना कर ही जाने देते थे।" 

मेहनत से कमाया हुआ धन यूं ही लुटता देख कर पिता संतोख दास जी दुःखी रहने लगे। श्री संतोख दास जी ने अपने ससुर श्री बारु राम जी को संदेश भेजा कि वह अपने दोहते के लिये एक सुंदर कन्या की खोज करे। श्री बारू राम भी अपने क्षेत्र के माने हुए व्यक्ति थे। उन्होंने गंगा पार के एक गांव मिर्जापुर के एक अच्छे व्यक्ति की सपुत्री कुमारी लोना जो श्री गुरु रविदास जी की हमउम्र थी, से शादी करवा दी ।

पृथ्वी सिंह आज़ाद तथा अन्य कई पुस्तकों में सद्‌गुरु जी की पत्नी का नाम "लोना देवी" ही लिखा है, जब कि भाई जोध सिंह ने "भगवन्ती माना" है। असल बात तो यह है कि लोना देवी उन के मायके परिवार में नाम था परंतु शादी के पश्चात् ससुराल में उनका नाम भागिन देवी रखा गया था।

सद्‌गुरु रविदास जी का विवाह पिता संतोख दास जी ने इस कारण किया ताकि वह उनके व्यापार को संभाल सकें। परंतु सद्‌गुरु रविदास जी का मिशन तो कुछ और ही था।

सद्‌गुरु रविदास महाराज जी के विवाह की प्रमाणित जानकारी न मिलने के कारण आप जी की संतान के बारे में भी कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता और न ही कहीं इसका उल्लेख ही मिलता है। यह तो अवश्य माना जाता है कि सद्‌गुरु रविदास महाराज जी गृहस्थी थे। 

आप जी की संतान का उल्लेख करते हुए आचार्य पृथ्वी सिंह आज़ाद ने अपनी रचना "गुरु रविदास" के पृष्ठ संख्या 16 पर बताया है कि "रविदास पुराण" के अनुसार आप जी का एक बेटा था, जिसका नाम विजय दास था।

महंत जसवंत सिंह के अनुसार सद्‌गुरु रविदास जी का एक बेटा और एक बेटी थी। बेटे का नाम संत दास और बेटी का नाम संत कौर बताया है। बाबा सति दरबारी अपनी रचना 'रविदास परगास में एक पुत्र होने की बात करते हैं। लेकिन खेद की बात है कि इन सभी का कोई भी प्रमाण नहीं मिलता ।

अगर सद्‌गुरु रविदास जी की कोई संतान होती तो कहीं न कहीं समकालीन इतिहास या उसके बाद में आप जी के साथ-साथ आपकी संतान का भी अवश्य उल्लेख होता। 

श्री गुरु रविदास जी ने अपने समाज को ही अपनी संतान माना है। सभी प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सद्‌गुरु रविदास महाराज जी ने गृहस्थ जीवन तो अवश्य अपनाया था लेकिन संतान कोई न थी।

सद्‌गुरु रविदास महाराज जी ने गृहस्थ जीवन अपना कर यह सिद्ध कर दिया कि व्यक्ति गृहस्थ जीवन में भी सांसारिक पदार्थों से निर्लिप्त होकर परमात्मा को प्राप्त कर सकता है ।

सद्गुरु रविदास जी महाराज के उपदेश और लेखनी

सदगुरु रविदास जी महाराज ने अपने जीवन के दौरान कई लेख और कविताएं रचीं, जिनमें उन्होंने समाज के विभिन्न मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त किए । 

उनके उपदेशों में धर्म, भक्ति, और सेवा के महत्व को प्रमुखता दी गई है। उन्होंने अपने लेखों में जातिवाद, भेदभाव, और अन्य सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाई । उनके लेख आज भी समाज में समानता और न्याय के संदेश को फैलाते हैं।

श्री गुरु ग्रंथ साहिब में सद्गुरु जी के चालीस शबद और एक श्लोक शामिल हैं, जो उनकी गहरी आध्यात्मिकता और समाज सेवा के प्रति उनके समर्पण को दर्शाते हैं। 

इन रचनाओं में भगवान के नाम का जप करने, सच्चे गुरु की प्राप्ति, और संतों के उपदेशों का अनुसरण करने का महत्व समझाया गया है। 

उनकी लेखनी ने समाज के दलित और उत्पीड़ित वर्गों को नई दिशा दी और उन्हें अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए प्रेरित किया ।

आज सदगुरु रविदास महाराज जी के करोड़ों अनुयायी दुनिया भर के देशों मे रहते हैं, उन्होंने सदगुरु रविदास महाराज जी की पावन पवित्र वाणी पर खोज करके सभी ग्रंथों से इकट्ठा कर अमृतवाणी ग्रंथ की स्थापना की है । 

आज विश्व भर में सदगुरु रविदास महाराज जी के करोड़ों अनुयायी (संगत) है । जो सदगुरु रविदास महाराज जी की अमृतवाणी को जन जन तक पहुँचा रहे है जिसमें सद्गुरु रविदास महाराज जी के सरल और सहज भक्ति मार्ग, नाम भक्ति, संत परंपरा, बाहरी कर्मकांडों का खंडन, सामाजिक समरसता  की बात की है । 

संघर्ष और समाज सेवा में योगदान

सद्गुरु रविदास महाराज का जिस मध्यकाल में आविर्भाव हुआ, उस समय देश और समाज विषम परिस्थितियों में से गुज़र रहा था। देश में मुस्लिम शासन होने के कारण धार्मिक कट्टरपंथता ज़ोरों पर थी। सत्ता के ज़ोर पर वैभव का प्रलोभन दिखाकर, धर्म परिवर्तन करवाने का अभियान तेज़ी पर था। 

दूसरी ओर हिंदुओं में ऊँच नीच, जाति-पाति, छुआछूत की बीमारी पूर्ण शिखर पर थी। अनंत कुरीतियों व कर्मकांडों में उलझा हिंदु धर्म खंड- विखंड होते हुए भी देवी-देवताओं व भगवान के अवतारों के चक्रव्यूह में घिरा हुआ था। 

दोनों ही धर्मावलम्बी समाज के मध्यवर्गीय, निम्न व छोटी जाति के लोगों के उत्पीड़न और शोषण में संलग्न थे ।

उस समय धर्म केवल ऊँचे लोगों की तिजौरी में ही बंद था। अछूतों के लिए शिक्षा के द्वार बंद थे। वेद-शास्त्रों को पढ़ने और सुनने पर भी पाबंदी थी। 

ऐसी स्थिति में सद्गुरु रविदास महाराज जी पहले ऐसे संत हुए जिन्होंने अपनी आध्यात्मिक शक्ति से ऐसी क्रांति उत्पन्न की जिससे राजमहलों में जाने वाली पगडंडियां गरीबों की झोंपड़ियों की ओर मुड़ गईं। 

इसी क्रांति से प्रभावित शाही महल की महारानी मीराबाई और झालांबाई ने सद्गुरु रविदास जी को अपना गुरु बना लिया। 

महाराज सद्गुरु रविदास जी के जन्म से पहले किसी भी महापुरुष ने ऐसा कर्म नहीं किया था कि वह समाज के उच्च वर्ग दद्वारा शोषित निम्न जाति के दलितों पर हो रहे अन्याय का विरोध कर सकने की क्षमता रख सके। गुरु रविदास जी ने निर्भय होकर धर्मांन्ध लोगों से कहा :

 जन्म जात मत पूछिए का जात अरु पात।

रविदास पूत सब प्रभ के कोउ नहीं जात कुजात।

 

जातपात के फेर मंहि, उरझि रहई सभी लोग ।

मानुषता को खात हइ रविदास जात का रोग।

 

सद्गुरु रविदास जी महाराज जी ने बावन अक्षरी देवनागरी लिपि को सुधार कर गुरमुखी लिपि भी तैयार की । सामान्य लोगों की भाषा के अनुसार चौंतीस अक्षरों वाली यह लिपि बाद में गुरमुखी लिपि के नाम से प्रसिद्ध हुई । इसकी पुष्टि प्रो. लाल सिंह ने भी अपनी पुस्तक 'बाणी श्री गुरु रविदास जी और तत सिद्धांत' में भी की है ।

कुछ विद्वानों का मत है कि गुरमुखी लिपि श्री गुरु अंगद देव जी की देन है, पर उनका यह मत निराधार है। श्री गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज गुरु अंगद देव जी की वाणी में कहीं भी इसका उल्लेख नहीं आता पर सद्गुरु रविदास जी की प्रमाणित वाणी में इसका स्पष्ट उल्लेख है ।

चल मन हरि टकसाल पढ़ाऊ ।

प्रेम की घाटी सुरति की लेखनि करिहौं

रारा-मम्मा लिख अंक दिखाऊ ।।

 

यह शबद गुरु रविदास चेयर पंजाब यूनिवर्सिटी चण्डीगढ़ द्वारा प्रकाशित 'बाणी श्री गुरु रविदास जी के पृष्ठ नंबर 38 और शबद नंबर 92 में दर्ज है । एक बात यहां और भी स्पष्ट हो जाती है कि गुरु रविदास जी देवनागरी के बावन अक्षरों को मान्यता नहीं देते बल्कि उन्होंने समूचा संस्कृत साहित्य चौंतीस अक्षरों में लिखा, ही दृढ़ किया है। दूसरा -आप जी की वाणी में ररा, मम्मा, सस्सा अक्षर यह स्पष्ट करते हैं कि गुरमुखी लिपि का आरंभ श्री गुरु अंगद देव जी से पहले ही हो चुका था । श्री गुरु रविदास महाराज जी ने लिखा है:-

 

सुखसागर सुरितरु चिंतामनि कामधैन बसि जाके रे ।

चारि पदारथ असट महा सिधि, नवनिधि करतल ता कै ।।१।।

हरि हरि हरि न जपसि रसना ।

अवर सभ छाडि बचन रचना । ।१ । । रहाउ ।।

नाना खिआन पुरान बेद विधि

चउतीस अछर माही ।

बिआस बीचारि कहिओ

परमारथु राम राम सरि नाही ।। २ ।।

सहज समाधि उपाधि रहत होइ बडे भागि लिव लागी ।

कहि रविदास उदास दास मति

जनम मरन भै भागी । । ३ । । २ । । १५ ।।

(आदि ग्रन्थ पन्ना 1106)

 

इस प्रकार हम देखते हैं कि सद्गुरु रविदास जी ने नियमबद्ध सैद्धांतिक चौंतीस अक्षरों की लिपि तैयार करके भाषा - विज्ञानी होने का प्रमाण दिया और लोगों को अपनी बोली में शिक्षा प्रदान करने के दवार खोलकर सामाजिक समता का सफल प्रयास किया ।

सद्गुरु रविदास महाराज जी का समाज में स्थान और महत्व 

सद्गुरु रविदास महाराज जी केवल भक्तसंतगुरुया सद्गुरु ही नहीं थे बल्कि वे 'ठाकुर' (स्वयं खुदा) थे । मुझे पूर्ण विश्वास है कि साहित्य का रसपान करने वाले पाठक एवं जौहरी विद्वान इस का अभिनंदन करेंगे । श्री गुरु अर्जुन देव जी ने आप जी को दुनिया के ठाकुर, गुरुओं के गुरु और ऊँचों के ऊँच कहा है : -

"ऊच ते ऊच नाम देउ समदरसी रविदास ठाकुर बणि आई ।"

गुरु प्यारी साध संगत जी! इस ठाकुर की महिमा अकथ है। विश्व का कोई भी कोश महाराज जी की महानता को अपने शब्दों के जाल में बांध नहीं सकता। आप जी की पवित्रता, महानता एवं प्रासंगिकता तो समुद्र की लहरों का ऐसा प्रवाह है, जिसे निरंतर अपने अलौकिक दृश्य से सभी को आकर्षित करना हैं, शाश्वत आनंद प्रदान करना है । 

इस लेख के माध्यम से सद्गुरु रविदास महाराज जी के पावन जीवन की गाथा को अपने भावों के सूत्र में पिरोकर आप सभी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास किया है ।

गुरु रविदास जी महाराज का जीवन और उनके उपदेश आज भी समाज के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। उनके जीवन से हमें सिखने को मिलता है कि सच्चाई, समानता, और मानवता का पालन करते हुए हम एक बेहतर समाज का निर्माण कर सकते हैं। उनके विचार और कार्य आज भी हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।


सदगुरु रविदास जी महाराज के जीवन का महत्व

गुरु रविदास जी महाराज का समाज में एक महान स्थान है। उन्होंने अपने उपदेशों के माध्यम से समाज में व्याप्त असमानताओं को दूर करने का प्रयास किया और समाज को एक नई दिशा दी। उनके उपदेश आज भी समाज को एकता, समानता, और मानवता के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं।

गुरु रविदास जी महाराज का जीवन और उनके कार्य आज भी समाज में महत्वपूर्ण हैं। उनके उपदेशों को मानकर हम समाज में समानता और एकता को बढ़ावा दे सकते हैं और एक बेहतर समाज का निर्माण कर सकते हैं। उनका संदेश आज भी हमें प्रेरित करता है और हमें समाज में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए प्रेरित करता है।

उनकी याद को समर्पित आध्यात्मिक और सामाजिक संघर्ष

गुरु रविदास जी महाराज की याद में आज भी कई आध्यात्मिक और सामाजिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। उनके उपदेशों को मानकर उनके अनुयायी समाज में जागरूकता और समानता का संदेश फैलाते हैं। गुरु रविदास जी महाराज के संदेश और उनकी याद को सजीव रखने के लिए कई धार्मिक और सामाजिक संस्थाएं भी काम कर रही हैं।

इन कार्यक्रमों के माध्यम से समाज में एकता, समानता, और मानवता का संदेश फैलाया जाता है। गुरु रविदास जी महाराज की याद में बने मंदिर और अन्य संस्थान उनके अनुयायियों के लिए एक केंद्र बिंदु हैं, जहां वे उनके उपदेशों को मानकर समाज में सुधार के लिए कार्य करते हैं। 

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