शिरोमणि श्री गुरु रविदास महाराज जी की स्कूली शिक्षा एवं गुरमुखी लिपि का इतिहास ।
शिरोमणि गुरु रविदास महाराज जी |
गुरु रविदास जी को यह भेदभावपूर्ण व्यवहार अस्वीकार्य लगा। उन्होंने ऐसी शिक्षा को तुरंत ठुकरा दिया और अपने पिता से कहा, "पिता जी, सच्चा ज्ञान न ही इन पंक्तियों से और न ही इन भेदभावपूर्ण शिक्षाओं से आता है। सच्चा ज्ञान हमारे आत्मबल, आचरण और सच्चे प्रयासों से प्राप्त होता है।" यह सुनकर पिता को संतोष हुआ और उन्होंने गुरु रविदास जी की बात को स्वीकार कर लिया।
चमार जाति, जिसे ऐतिहासिक रूप से समाज में पिछड़े वर्ग के रूप में देखा गया, ने हमेशा अपनी मेहनत और रचनात्मकता से समाज को प्रभावित किया। शिक्षा और सामाजिक अवसरों से वंचित होने के बावजूद, इस समुदाय ने चमड़े से बने सामानों जैसे जूते, पर्स, बेल्ट और अन्य उपयोगी वस्तुएं तैयार करके समाज की जरूरतों को पूरा किया। यह कार्य न केवल उनकी शारीरिक मेहनत का प्रमाण है बल्कि उनकी वैज्ञानिक सूझ-बूझ और कौशल का भी उदाहरण है।
यह समुदाय मरे हुए पशुओं की चमड़ी को वैज्ञानिक विधियों से उपयोगी बनाकर उसे समाज के लिए अमूल्य बना देता था। चमड़े की बदबू को समाप्त कर उसे पतली परतों में ढालकर, विविध रंगों से सजाया जाता था। इस प्रकार, शिल्पकारों की कुशलता से समाज की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति होती थी।
यद्यपि उच्च वर्ग के लोगों ने इस जाति को नीचा दिखाने की कोशिश की, लेकिन उनके बिना समाज का आत्मनिर्भर होना असंभव था। यह समुदाय न केवल समाज को उपयोगी वस्तुएं प्रदान करता था, बल्कि अपने ज्ञान, मेहनत और कर्मनिष्ठा से एक आत्मनिर्भर और समृद्ध समाज का निर्माण भी करता था।
संत रविदास जी ने बाल्यकाल में ही जातिगत भेदभाव का सामना करते हुए भी शिक्षा प्राप्ति का दृढ़ निश्चय किया। उन्होंने कहा, "मैं पढ़ाई करूंगा, लेकिन अपने बलबूते पर। ऐसी शिक्षा प्राप्त करूंगा, जिससे समाज में फैली ऊंच-नीच की सभी दीवारें गिर जाएं, समानता फैले और सच्चे ज्ञान का प्रकाश हो।"
गुरु रविदास जी ने बाद में आत्मज्ञान और भक्ति मार्ग से शिक्षा के महत्व को समझाया और समाज को बताया कि सच्चा ज्ञान किसी जाति या वर्ग का मोहताज नहीं है। यह प्रेरणा आज भी समाज के लिए एक मिसाल बनी हुई है।
जब विदेशी जातियाँ और आर्य भारत आए, तो उन्होंने समाज को चार वर्णों में बाँटकर एकता को खंडित कर दिया। उन्होंने विद्या पढ़ने और सिखाने का कार्य अपने हाथों में ले लिया, जबकि शूद्र वर्ग को विद्या से पूर्णतः वंचित कर दिया। इस वर्ग को शिक्षा से दूर रखने के कठोर कानून लागू किए गए।
सद्गुरु रविदास जी ने इस असमानता को समझते हुए समाज के पिछड़े वर्ग को शिक्षित करने और उनकी भाषा के अनुरूप एक लिपि विकसित करने का निश्चय किया, ताकि वे शिक्षा के माध्यम से आत्मनिर्भर और जागरूक बन सकें। उनका विश्वास था कि शिक्षा ही अज्ञानता के अंधकार को मिटाकर समाज में समानता और विवेक का दीप प्रज्वलित कर सकती है।
अपने इस संकल्प के तहत उन्होंने एक नई लिपि विकसित की, जिसे आज "गुरमुखी लिपि " के रूप में जाना जाता है। यह लिपि समाज में समानता और सशक्तिकरण का प्रतीक बनी। देवनागरी लिपि के साथ यह एक ऐतिहासिक योगदान है ।
सद्गुरु रविदास जी की यह वाणी,
"माधो अबिदिया हित कीन, बिबेक दीप मलीन",
शिक्षा और ज्ञान की अनिवार्यता पर जोर देती है। इसमें उन्होंने कहा कि अज्ञानता (अबिदिया) मनुष्य के विवेक रूपी दीपक को मलीन (धुंधला) कर देती है। इस वाणी के माध्यम से वे हमें यह संदेश देते हैं कि विद्या के बिना मनुष्य विवेक और आत्मज्ञान से वंचित रह जाता है। केवल शिक्षा ही उसे सही दिशा में ले जा सकती है और समाज में समानता व न्याय को स्थापित कर सकती है ।
सच्ची स्वतंत्रता शिक्षा के माध्यम से ही प्राप्त होती है। सद्गुरु रविदास जी ने शिक्षा को मानव जीवन के शोषण से मुक्ति का माध्यम बताया। उनका मानना था कि शिक्षा से व्यक्ति आत्मनिर्भर और जागरूक बनता है, जिससे क्रांति और सामाजिक बदलाव की शुरुआत होती है। उन्होंने इसी उद्देश्य से देवनागरी लिपि को सुधार कर सामान्य जन की भाषा के अनुकूल गुरमुखी लिपि बनाई। इस प्रयास का उद्देश्य समाज में समानता और जागरूकता लाना था, जिसे प्रो. लाल सिंह ने भी अपनी पुस्तक 'बाणी श्री गुरु रविदास जी और तत सिद्धांत' में प्रमाणित किया है।
पुस्तक 'बाणी श्री गुरु रविदास जी और तत सिद्धांत' प्रोफेसर लाल सिंह द्वारा लिखित है। इस पुस्तक में सद्गुरु रविदास जी की बाणी, उनके सिद्धांत और विचारों पर विस्तृत चर्चा की गई है। यह ग्रंथ गुरु जी की आध्यात्मिक शिक्षा और उनके समय में सामाजिक सुधारों पर केंद्रित है। इसमें यह भी उल्लेख है कि कैसे उन्होंने गुरमुखी लिपि का विकास किया, जो सामान्य वर्ग के लोगों के लिए शिक्षित होने का एक सशक्त माध्यम बना।
गुरमुखी लिपि की उत्पत्ति के विषय में विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं। कुछ इसे श्री गुरु अंगद देव जी से जोड़ते हैं, लेकिन प्रमाण के अभाव में यह मत कमजोर पड़ता है। इसके विपरीत, सद्गुरु रविदास जी की वाणी में इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है। उनकी रचना में
"चल मन हरि टकसाल पढ़ाऊ"
जैसे शबद से यह संकेत मिलता है कि उन्होंने गुरमुखी लिपि के आधार का निर्माण किया।
उनकी वाणी में ररा, मम्मा, सस्सा जैसे अक्षरों का उपयोग इस बात को और पुष्ट करता है।
यह शब्द गुरु रविदास चेयर, पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ द्वारा प्रकाशित ग्रंथ में भी दर्ज है, जो इसे ऐतिहासिक प्रमाण देता है। इस प्रकार, गुरमुखी लिपि का आरंभ सद्गुरु रविदास जी के समय से माना जाता है।
श्री गुरु रविदास महाराज जी ने लिखा है:-
सुखसागर सुरितरु चिंतामनि कामधैन बसि जाके रे ।
चारि पदारथ असट महा सिधि, नवनिधि करतल ता कै ।।१।।
हरि हरि हरि न जपसि रसना । अवर सभ छाडि बचन रचना । ।१ । । रहाउ ।।
नाना खिआन पुरान बेद विधि चउतीस अछर माही ।
बिआस बीचारि कहिओ परमारथु राम राम सरि नाही ।। २ ।।
सहज समाधि उपाधि रहत होइ बडे भागि लिव लागी ।
कहि रविदास उदास दास मति जनम मरन भै भागी । । ३ । । २ । । १५ ।।
(आदि ग्रन्थ पन्ना 1106)
इस प्रकार हम देखते हैं कि सद्गुरु रविदास जी ने नियमबद्ध सैद्धांतिक चौंतीस अक्षरों की लिपि तैयार करके भाषा विज्ञानी होने का प्रमाण दिया और लोगों को अपनी बोली में शिक्षा प्रदान करने के दवार खोलकर सामाजिक समता का सफल प्रयास किया ।
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