सतगुरु रविदास महाराज जी के गुरु कौन है ?

 सतगुरु रविदास महाराज जी के गुरु कौन है ?


सतगुरु रविदास महाराज जी के गुरु कौन थे ?

परम परस गुरु भेटीऐ
पूरब लिखत लिलाट

 

'गु+रु' दो धातुओं के सुमेल से बना शब्द गुरु महिमा का ही दयोतक है।

 

इसका शाब्दिक अर्थ है - अंधकार को मिटा कर प्रकाश देने वाला। जो व्यक्ति, साधन एवं वस्तु हमें किसी न किसी प्रकार से ज्ञान देती है, हमारा मार्गदर्शन करती है, उसे गुरु कहा जाता है।

जब से मानव इस पृथ्वीलोक में आया है, तभी से गुरु-परंपरा भी साथ-साथ चलती आ रही है। ज़िन्दगी के हर मोड़ पर हमें कोई न कोई मार्गदर्शक मिल ही जाता है। जन्म से पहले ही हमारी माँ हमारा प्रथम गुरु बनती है। माँ के खान-पान, रहन-सहन, व्यवहार का प्रभाव जन्म से पहले ही बच्चे पर पड़ना शुरु हो जाता है जो आज प्रमाणित हो चुका है। तभी तो कहा जाता है कि गर्भवती महिलाओं को हमेशा अच्छी सोच रखनी चाहिए। पौष्टिक आहार लेना चाहिए, अच्छी पुस्तकें पढ़नी चाहिएं क्योंकि आने वाला बच्चा भी वैसे ही संस्कार ग्रहण करेगा। इतिहास साक्षी है कि अभिमन्यु ने चक्रव्यूह के छह द्वारों को भेदने का ज्ञान गर्भ अवस्था में ही प्राप्त कर लिया था।

इसी प्रकार जन्म के बाद भी मां ही समय-समय पर अबोध बालक को चलना, बोलना, खाना-पीना सिखाती है। जब बच्चा विद्यालय में प्रवेश करता है तो माता-पिता के साथ-साथ शिक्षक भी बच्चे के गुरु के रूप में कार्य करना आरंभ कर देते हैं। शिक्षक हमें अक्षर-ज्ञान और जीवन संबंधी अन्य बातों का ज्ञान देकर जीने की कला सिखाता है।

 

जिस प्रकार समाज में रहकर हम सामाजिक गुरुओं द्वारा अच्छा नागरिक बनने की शिक्षा ग्रहण करते हैं, उसी प्रकार उस परम-पिता परमेश्वर से मिलाने के लिए किसी परम गुरु की आवश्यकता पड़ती है। आदिकाल में यह कार्य शिक्षक ही कर देते थे क्योंकि उस समय धार्मिक शिक्षा देना ही जीवन का मूल उद्देश्य होता था। पुस्तकों के ज्ञान का इतना महत्त्व नहीं होता था । धार्मिक शिक्षा और अस्त्र-शस्त्र की विद्या ही प्रदान की जाती थी, तभी उस शिक्षा देने वाले को 'गुरु' कहा जाता था। शिक्षक, अध्यापक आदि शब्द बाद में प्रचलित हुए हैं। गुरु और शिक्षक में यही अंतर है कि गुरु जिन बातों की शिक्षा देता है उन्हें पहले वह अपने जीवन में अपनाता है। उसका जीवन ही शिक्षा का साधन होता है।

 

शिक्षक अच्छी बातों की शिक्षा तो देता है लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि वह शिक्षक उन बातों को अपने जीवन में अपनाता हो। वे अच्छे कथावाचक तो हो सकते हैं लेकिन उन कथाओं पर आचरण करना सभी के लिए संभव नहीं। उनकी कथनी और करनी में अन्तर हो सकता है। यही कारण है कि हमें विद्या ग्रहण करने बाद भी गुरु बनाने के लिए किसी पूर्ण संत महापुरुष की शरण में जाने की आवश्यकता पड़ती है। गुरु की महत्ता का वर्णन करते हुए श्री गुरु रामदास जी फरमाते हैं :

 

मेरे राम हम बारिक हरि प्रभ के हैं इयाणे ।
धन्नु धन्नु गुरु गुर गुर सतिगुरु पाधा
जिन हरि उपदेशु दे कीये सयाने ।।
(पृष्ठ संख्या 168)

 

मानव का मूल उद्देश्य 'परमार्थ' है और इस मंज़िल तक पहुंचने के लिए हमें गुरु की आवश्यकता पड़ती है। सभी महापुरुषों ने गुरु धारण करने के महत्त्व को स्वीकारा है। उनके अनुसार गुरु के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। तुलसीदास जी ने तो यहाँ तक कह दिया है :-

राम कृष्ण से को बड़ा
इन हो ने गुरु कीन
तीन लोक के नाइका
गुरु आगे अधीन ।

 

त्रेता युग में दशरथ पुत्र श्री राम को विष्णु का अवतार मानकर पूजा की गई। द्वापर में श्री कृष्ण को विष्णु का अवतार मान कर उनकी आराधना की गई। उन्हें भगवान कहा गया लेकिन मानव-रूप में अवतार लेने के कारण इन्हें भी गुरु धारण करना पड़ा । श्री राम ने कुलगुरु विशिष्ट मुनि से शिक्षा ग्रहण की और श्री कृष्ण ने गुरु संदीपनी के आश्रम में शिक्षा प्राप्त की अनिवार्यता को स्वीकार करते हुए कहा है :-

कुम्भे बंधा जलु रहै
जल बिनु कुम्भु न होइ ।
ज्ञान का बधा मनु रहै,
गुर बिनु ज्ञानु न होइ ।।
(आसा दी वार म. 1)
 
बलिहारी गुर आपने दिउहाड़ी सद वार ।
जिनि माणस ते देवते कीए करत न लागी वार ।।1।।

 

जे सउ चंदा उगवहि सूरज चड़हि हज़ार । ऐते चाणन होदिआं गुर बिनु घोर अंधार ।।
(आसा दी वार (श्लोक म. 1))

 

सहजो बाई ने कहा है :-
गुरु गोबिंद दोउ खड़े काको लागूं पांय
बलिहारी गुरु आपणो,जिन गोबिंद दियो मिलाय ।


गुर बिनु घोरु अन्धारु
गुरु बिनु समझ न आवै ।।
गुर बिनु सुरति न सिधि
गुरु बिनु मुकति न पावै ।।
 (सवइये महला 4 के 4) पंना : 727

 

बिनु सतिगुर किनै न पाइउ
बिनु सतिगुर किनै न पाइया ।।
सतिगुर विचि आपु रखिउनु
करि परगटु आखि सुनाइया ।।
(आसा दी वार पउड़ी)

 

यदि हम अपनी दिनचर्या को ही देखें तो ज्ञात होता है कि किसी भी का कुछ अंश जब अपने मूल से किसी कारण अलग हो जाता है तो उसे फिर से जोड़ने के लिए उसी वर्ग की वस्तु की मदद लेने की आवश्यकता पड़ती है। यदि कोई कपड़ा फट जाए तो उसे जोड़ने के लिए धागा ही चाहिए। इसी प्रकार सोने को जोड़ने के लिए सोना या ऐसे ही गुणों वाली धातु की आवश्यकता पड़ती है । ईंट को ईंट से जोड़ने के लिए मिट्टी एवं सीमेंट की आवश्यकता पड़ती है क्योंकि इन सबकी जाति एक है। किसी कपड़े को मिट्टी से नहीं जोड़ा जा सकता। सोने को मिट्टी से नहीं जोड़ा जा सकता। ईंट को लोहे से नहीं चिपकाया जा सकता।

 

तो ऐसे ही मालिक से अलग हुई जीवात्मा को मालिक से मिलाने के लिए मालिक जैसे गुणों के धारक किसी संत-महापुरुष की ही आवश्यकता होती है। कुछ विद्वानों ने यह तर्क दिया है कि श्री गुरु रविदास महाराज जी ने उस निराकार, सर्वशक्ति सम्पन्न एक ईश्वर को ही अपना गुरु मान लिया था।  जैसे :-

 

तुम कहीअत हौ जगत गुर सुआमी ।
हम कहीअत कलिजुग के कामी ।।1।।

 

अर्थात हे मालिक! तुम ही पूरे जगत् के गुरु हो परंतु महाराज जी ने अपनी पवित्र वाणी में बताया है कि उस मालिक से मिलने के लिए संत सद्गुरु की आवश्यकता होती है।

 

परम परस गुरु भेटीऐ पूरब लिखत लिलाट ।
उनमन मन मन ही मिले छुटकत बजर कपाट ।।

 

अर्थात पूर्ण गुरु ही हमारे वज्र कपाट के द्वार खोल सकता है। गुरु के बिना ईश्वर से मिलाप नहीं हो सकता। इस विचारधारा के अनुसार यह कहा जा सकता है कि महाराज जी ने भी अवश्य ही किसी महामानव (देहधारी) संत महात्मा को अपना गुरु बनाया होगा।

 

किसी भी साहित्यकार या कवि की रचना पर उसके व्यक्तित्व का प्रभाव अवश्य रहता है। वह जो कुछ भी कहता है, उसका स्वयं का अनुभव होता है। जो कुछ वह देखता है, तर्क दिये हैं लेकिन उसमें से अभी तक कोई भी तर्क पूर्ण रूप से स्पष्ट नहीं सुनता है, उसी में से जिसे वह अपने जीवन में उतारता है, उसे अपनी वाणी व लेखनी के द्वारा प्रस्तुत करता है। सदगुरु रविदास जी ने भी अपनी वाणी में लिखा है :-

 

तनु मनु अरपउ पूज चरावउ गुर परसादि निरंजनु पावउ ।।

 

अर्थात जब मैंने अपने तन-मन को गुरु चरणों में अर्पित कर दिया तो प्रभु की कृपा से मैंने निरंजन (परमात्मा) को पा लिया । गुरु की ज़रूरत को स्वीकार करते हुए महाराज जी कहते हैं:

 

बिनु देखे उपजै नहीं आसा ।
जो दीसै सो होइ बिनासा ।।

 

जब तक किसी को देखा न जाये, उसके रंग-रूप, आकार के दर्शन-दीदार न किये जायें, तब तक उसके प्रति स्नेह की भावना उत्पन्न नहीं होती और जो दिखाई दे रहा है, वह सभी नश्वर होने वाला है। केवल प्रभु ही अविनाशी है और वह दिखाई नहीं देता। जब प्रभु हमें दिखाई नहीं देंगे तो भला उनके प्रति कैसे आकर्षित हो सकते हैं? उसके प्रति प्रेम-भाव कैसे पैदा होगा? अतः उससे मिलाप कैसे होगा? महाराज जी जीव की इस उलझन का समाधान बताते हुए लिखते हैं :-

 

संत तुझी तनु संगति प्रान ।
सतिगुर गिआन जानै संत देवादेव ।।

 

अर्थात संत उस मालिक का रूप हैं। परम-शक्ति के गुणों के धारक संत महापुरुष ही हमारा मिलाप उस मालिक के साथ करवा सकते हैं। संतों की संगति करने से, उनके साथ प्रेम करने से ही मालिक से प्रेम संभव हो सकेगा

 

संत अनंतहि अंतरु नाही ।

 

अतः उपर्युक्त पूरे विवेचन से यह स्पष्ट है कि श्री गुरु रविदास महाराज जी ने भी किसी महापुरुष को अपना गुरु अवश्य बनाया होगा। लेकिन अब यह विचार करना होगा कि उनके गुरु थे कौन?

 

यह निश्चित कर पाना कठिन है कि सद्‌गुरु रविदास महाराज के गुरु कौन थे? भिन्न-भिन्न विद्वानों ने महाराज जी के गुरु बनाने के बारे में अनेक तर्क दिये हैं लेकिन उसमें से अभी तक कोई भी तर्क पूर्ण रूप से स्पष्ट नहीं हुआ। बहुत अधिक महान विद्वानों ने गुरु रामानंद को आप जी का गुरु कहा है परंतु सद्गुरु रविदास जी की वाणी जो कि गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज है और अन्य प्रमाणित वाणी से भी यही स्पष्ट हुआ है कि आप जी ने कहीं भी रामानंद को अपना गुरु होने का उल्लेख नहीं किया। ये दंतकथायें जो पूर्ण अप्रमाणित हैं, आज के वैज्ञानिक और प्रमाणित युग में स्वीकार नहीं की जा सकतीं ।

स्वामी रामानंद और गुरु रविदास जी की विचारधारा बिल्कुल अलग-अलग थी। चाहे दोनों ने भगवान की प्राप्ति का मार्ग बताया, दोनों की मंज़िल एक थी पर फिर भी रास्ते भिन्न-भिन्न थे। स्वामी रामानंद जी बाहरी कर्मकांडों और सांसारिक पूजा सामग्री में विश्वास रखते थे परंतु श्री गुरु रविदास जी ने इन सब का खंडन कर केवल एक प्रभु के सच्चे नाम की आराधना करने को कहा। सहज मार्ग द्वारा प्रभु भक्ति की प्रेरणा दी। 

दूसरा - स्वामी रामानंद ब्राहमण जाति से संबंध रखते थे। आप ही बताइए कि मनुवादी विचारधारा में विश्वास रखने वाले महापुरुष आज से लगभग 600 वर्ष पूर्व निम्न जाति में पैदा हुए गुरु रविदास को अपना शिष्य कैसे मान सकते थे? क्योंकि कुछ विद्वानों के अनुसार जब सद्‌गुरु कबीर महाराज जी स्वामी रामानंद को अपना गुरु बनाने के लिए गए तो स्वामी रामानंद ने उन्हें अछूत कहकर दीक्षा देने से इनकार कर दिया था परंतु सद्‌गुरु कबीर जी जानते थे कि स्वामी रामानंद जी गंगा नदी पर प्रतिदिन सुबह स्नान करने जाते हैं। मन में दृढ़ संकल्प कर सद्‌गुरु कबीर जी भी सुबह उसी घाट पर सीढ़ियों में लेट गए। जब स्वामी जी स्नान करने के लिए घाट की सीढ़ियों से होकर गुज़रने लगे तो उनका पाँव सद्‌गुरु कबीर जी के तन से स्पर्श हुआ। उन्होंने सोचा कि यह कोई वस्तु होगी जिस पर मैंने अपना पांव रख दिया है। उन्होंने ध्यान से उसकी ओर देखा तो पाया कि कोई मानव सीढ़ियों पर लेटा हुआ था। एकाएक उनके मुख से यह शब्द निकले, उठो बेटा, 'राम कहो। तभी से कबीर महाराज जी अपने गुरु के मुखारबिंद से निकले प्रवचनों को भजने लगे। उसी राम-नाम का स्मरण करने लगे। 

जब कबीर जी से उनके गुरु का नाम पूछा गया तो वे कहने लगे, 'मेरे गुरु स्वामी रामानंद हैं।' पता चलने पर लोगों ने स्वामी रामानंद का कड़ा विरोध किया और हुए उनसे पूछा कि आप ने सामाजिक मर्यादा को भंग करके एक जुलाहे को दीक्षा कैसे  दे दी? स्वामी रामानंद जी ने कहा कि मैंने उनको दीक्षा नहीं दी। कबीर झूठ कहता है। तब कबीर महाराज जी ने स्वामी को गंगा घाट की घटना का स्मरण करवाया और कहा कि महाराज जी, आप ने ही तो मुझे गंगा घाट से उठाकर कहा था - "राम का हो” तभी से मैं आपके वचनों का पालन करता आ रहा हूँ। अतः आप ही मेरे गुरु हैं।"

 

अब सोचने की बात यह है कि यदि सद्गुरु कबीर को जुलाहा जाति का होने के कारण स्वामी रामानंद ने दीक्षा देने से इनकार कर दिया तो फिर चमार जाति में जन्म लेने वाले सद्गुरु रविदास के गुरु रामानंद कैसे हो सकते हैं? गुरु रविदास के लिए मनुवादी कट्टर विचारधारा का त्याग उन्होंने कैसे कर दिया होगा? कदापि नहीं। इसलिए यह तो निश्चित है कि स्वामी रामानंद सद्गुरु रविदास जी के गुरु हो ही नहीं सकते। 

इसी के साथ-साथ यह भी प्रमाण मिलता है कि अगर सद्गुरु रविदास जी अपने समकालीन महापुरुषों जैसे कि सद्गुरु कबीर, सद्गुरु नामदेव, सद्गुरु त्रिलोचन सद्गुरु सधना, सद्गुरु सैण आदि का अपनी वाणी में श्रद्धापूर्वक उल्लेख कर सकते हैं अगर स्वामी रामानंद जी सद्गुरु रविदास जी के गुरु होते तो महाराज जी अपनी वाणी में अपने गुरु की प्रशंसा क्यों न करते? सद्गुरु रविदास जी ने अपनी वाणी में झूठे आडम्बरों, कर्मकाण्डी सामग्री और पूजा के दिखलावे वाले ढंगों का तर्कयुक्त खण्डन किया है, जिनका स्वामी रामानंद जी ने समर्थन किया है-

 

दूधु त बछरै थनहु बिटारिओ
फूलु भवरि जलु मीनि बिगारिओ । । १ ।।
माई गोबिंद पूजा कहा लै चरावउ ।
अवरु न फूलु अनूपु न पावउ । । १ । । रहाउ ।।
मैलागर बेहर्र है भुइअंगा ।
बिखु अंम्रितु बसहि इक संगा ।। २ ।।
धूप दीप नईबेदहि बासा ।
कैसे पूज करहि तेरी दासा । । ३ । ।
तनु मनु अरपर पूज चरावउ ।
गुर परसादि निरंजनु पावउ ।।४।।
पूजा अरचा आहि न तोरी ।।
कहि रविदास कवन गति मोरी || ||||
(आदि ग्रन्थ पन्ना 325)

           

सद्गुरु रविदास जी ने दूध, फूल, जल आदि सारी पूजा सामग्री को जूठा कहते हुए केवल एक परमेश्वर हुए केवल एक परमेश्वर के नाम का ही स्मरण करने को कहा है। पूजा का नया वैज्ञानिक सिद्धांत देकर आप जी ने प्रभु नाम को ही पूजा सामग्री कहते हुए अपना तन-मन गुरु को अर्पित करने का संदेश दिया है। यह सारी सांसारिक सामग्री भगवान की पूजा के तुल्य नहीं है। प्रभु का स्मरण सच्चे हृदय से करके उस मालिक से अभेद हुआ जा सकता है। सद्गुरु जी की ऐसी पवित्र वाणी से प्रभावित होकर ही रामानंद जी ने ये शब्द कहे थे –

 

कत जाईऐ रे घरि लागो रंगु ।।
मेरा चितु न चलै मन भइउ पंगु ।।१।। रहाउ ।।
की एक दिवस मन भई उमंग ।।
घसि चंदन चोआ बहु सुगंध ।।
पूजन चाली ब्रहम ठाइ ||
सो ब्रहम बताइओ गुर मन ही माहि । । १ । ।
जहा जाईऐ तह जल पखान ।।
तू पूरि रहिउ है सभ समान ।।
बेद पुरान सभ देखे जोइ ।।
ऊहां तउ जाईऐ जउ ईहां न होइ ।।२।।
सतिगुर मै बलिहारी तोर ।।
जिनि सकल बिकल भ्रम काटे मोर ।।
रामानंद सुआमी रमत ब्रहम ।।
गुर का सबदु काटै कोटि करम ।।३।।१।। (पंना ११६५)

 

हे मानव तू किधर को जा रहा है, प्रभु तो तेरे अंदर है, बाहर नहीं। चाहे मैं भी तेरी तरह बाहरी कर्म-काण्डों में फंसा हुआ था, अब सद्गुरु की कृपा से मेरे सभी भ्रम दूर हो गए हैं। सभी उलझनें समाप्त हो गई हैं और भक्ति के सहज मार्ग से मैंने अपने भीतर से ही उस मालिक को पा लिया है।

अतः यह कहा जा सकता है कि सद्गुरु रविदास जी के साथ स्वामी रामानन्द की गोष्ठी हुई होगी। इससे यह भी सिद्ध होता है कि सद्गुरु रविदास जी तो स्वामी रामानन्द के गुरू हो सकते है परन्तु स्वामी रामानंद का सद्गुरु रविदास के गुरु होने का प्रमाण कहीं भी नहीं मिलता। बिना किसी आधार के अप्रमाणित पैतृक कथाओं से यह मान लेना कि रामानंद सद्गुरु रविदास के गुरु थे, अनुचित है, निराधार है।

 

अब हमें यह तो मालूम हो गया कि स्वामी रामानंद सद्गुरु रविदास जी के गुरु नहीं थे। अब प्रश्न यह उठता है कि फिर कौन महापुरुष उनके गुरु थे?

 

इसकी पुष्टि संत कांशी दास जी, जिनका आश्रम करापुर, जिला सागर (मध्य-प्रदेश) में है, ने की है। उन्होंने अपनी रचना में लिखा है कि संदन मुनि सद्गुरु रविदास जी के गुरु हुए हैं जो कि आदिवासी (अछूत) थे।

 

सारांश रूप से यह निष्कर्ष निकलता है-

1) सद्गुरु रविदास महाराज जी ने गुरु-धारण अवश्य किया
 
2) स्वामी रामानंद उनके गुरु नहीं हो सकते ।
 
3) सद्गुरु रविदास महाराज जी के गुरु आदिवासी संत ही हो सकते हैं।



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